Monday, December 24, 2007

रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

रात भर सर्द हवा चलती रही

रात भर हमने अलाव तापा

मैंने माज़ी से कई खुश्क सी शाखें काटी

तुमने भी गुजरे हुए लमहों के पत्ते तोड़े

मैंने जेबों से निकाली सभी सूखी नज़्में

तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए ख़त खोले

अपनी इन आँखों से मैंने कई मांजे तोड़े

और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी

तुमने भी पलकों पे नमी सूख गई थी, सो गिरा दी


रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको

काट के डाल दिया जलते अलावों में उसे

रात भर फूकों से हर लौ को जगाए रखा

और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा

रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने..


1 comment:

Amit said...

http://www.youtube.com/watch?v=wTFxS7qUdAw