Thursday, March 20, 2008

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

अमित जी,वाह! क्या बात है।एक बेहतरीन गजल लिखी है। सोच रहा था कि इस में मूझे सब से अच्छी कौन-सी पंक्तियां लगी? लेकिन मैं निर्णय नही कर पाया। क्यूँ कि पूरी रचना ही बहुत सुन्दर है।बधाई स्वीकारें।