Wednesday, March 19, 2008

चाँदनी छत पे चल रही होगी

चाँदनी छत पे चल रही होगी 
अब अकेली टहल रही होगी 

फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा 
वो बर्फ़-सी पिघल रही होगी 

कल का सपना बहुत सुहाना था 
ये उदासी न कल रही होगी 

सोचता हूँ कि बंद कमरे में 
एक शम-सी जल रही होगी 

तेरे गहनों सी खनखनाती थी 
बाजरे की फ़सल रही होगी 

जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया 
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी

1 comment:

mehek said...

itni khubsurat gazal padhne ko di,bahut shukriya,its awesome.
http://mehhekk.wordpress.com/