अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहें
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
गुलज़ार साहब की यह खूबसूरत और अर्थपूर्ण नज़्म उनके नए एलबम 'चांद परोसा है' में भूपेन्द्र ने बहुतबढिया तरह से गाई भी है. इससे पहले इसे सुरेश वाडेकर भी गा चुके हैं.
Post a Comment