Tuesday, March 18, 2008

मुझको भी तरकीब सिखा

अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते 
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ 
फिर से बांध के 
और सिरा कोई जोड़ के उसमे 
आगे बुनने लगते हो 
तेरे इस ताने में लेकिन 
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की 
देख नहीं सकता कोई 
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता 
लेकिन उसकी सारी गिराहें 
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे

1 comment:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

गुलज़ार साहब की यह खूबसूरत और अर्थपूर्ण नज़्म उनके नए एलबम 'चांद परोसा है' में भूपेन्द्र ने बहुतबढिया तरह से गाई भी है. इससे पहले इसे सुरेश वाडेकर भी गा चुके हैं.