Monday, December 29, 2008

दिल्ली : पुरानी दिल्ली की दोपहर - गुलज़ार

सन्‍नाटों में लिपटी वो दोपहर कहां अब
धूप में आधी रात का सन्‍नाटा रहता था।

लू से झुलसी दिल्‍ली की दोपहर में अक्‍सर...
‘चारपाई’ बुनने वाला जब,
घंटा घर वाले नुक्‍कड़ से, कान पे रख के हाथ,
इस हांक लगाता था- ‘चार... पई... बनवा लो...!’
ख़सख़स की टट्यों में सोये लोग अंदाज़ा कर लेते थे... डेढ़ बजा है!
दो बजते-बजते जामुन वाला गुज़रेगा
‘जामुन... ठंडे... काले... जामुन...!’
टोकरी में बड़ के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
बंद कमरों में...
बच्‍चे कानी आंख से लेटे लेटे मां को देखते थे,
वो करवट लेकर सो जाती थी

तीन बजे तक लू का सन्‍नाटा रहता था
चार बजे तक ‘लंगरी सोटा’ पीसने लगता था ठंडाई
चार बजे के पास पास ही ‘हापड़ के पापड़!’ आते थे
‘लो... हापड़... के... पापड़...’
लू की कन्‍नी टूटने पर छिड़काव होता था
आंगन और दुकानों पर!

बर्फ़ की सिल पर सजने लगती थीं गंडेरियां
केवड़ा छिड़का जाता था
और छतों पर बिस्‍तर लग जाते थे जब
ठंडे ठंडे आसमान पर...
तारे छटकने लगते थे!

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