तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुम से वोह अफ़साने कहाँ जाते
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता ना मैखाना
तो ठुकराये हुए इन्सान खुदा जाने कहाँ जाते
तुम्हारी बे-रूखी ने लाज रख ली बादा-खाने* की
तुम आंखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगर ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते
कतील अपना मुकाद्दर गम से बे-गाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम-से पहचाने कहाँ जाते
Wednesday, April 1, 2009
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