Wednesday, April 1, 2009

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुम से वोह अफ़साने कहाँ जाते

निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता ना मैखाना
तो ठुकराये हुए इन्सान खुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बे-रूखी ने लाज रख ली बादा-खाने* की
तुम आंखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगर ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते

कतील अपना मुकाद्दर गम से बे-गाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम-से पहचाने कहाँ जाते

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