समन्दरों में मुआफिक* हवा चलाता है
जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है
ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये
वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है
वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में
मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है
ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है
हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए
और उसको भूल गए जो हवा चलाता है
[*favourable]
Tuesday, September 1, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment