एक छप्पर का घर, नीम के साए
ऊंघता है धुंधलके में लिपटा हुआ
शाम का वक़्त है और चूल्हा है सर्द
सहन में एक बच्चा बरहना बदन
बासी रोटी का टुकडा लिए हाथ में
सर खुजाता है, जाने है किस सोच में
और असारे में आटे की चक्की के पास
एक औरत परेशान खातिर, उदास
अपने रुख पर लिए जिंदगी की थकन
सोचती है कि दिन भर की मेहनत के बाद
आज भी रूखी रोटी मिलेगी हमें
तुम हिकारत से क्यूँ देखते हो उसे
दोस्त! ये मेरे बचपन की तस्वीर है
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